अरस्तू के बारे में:
अरस्तू (384 ई.पू. – 322 ई.पू.) एक यूनानी दार्शनिक थे और पश्चिमी दर्शन के सबसे प्रभावशाली विचारकों में से एक माने जाते हैं।
वे प्लेटो के शिष्य और सिकंदर महान के गुरु थे।
अरस्तू ने नैतिकता (Ethics) के क्षेत्र में मौलिक योगदान दिया।
उन्हें सद्गुण नैतिकता (Virtue Ethics) का जनक कहा जाता है।
अरस्तू की प्रमुख दार्शनिक शिक्षाएँ:
1. स्वर्ण मध्य सिद्धांत (Doctrine of the Golden Mean):
सद्गुण (virtue) दो चरम सीमाओं — अत्यधिकता और न्यूनता — के बीच होता है।
उदाहरण: साहस, दुस्साहस और कायरता के बीच का मध्य मार्ग है।
एक सिविल सेवक को संतुलन बनाए रखना चाहिए — न अत्यधिक कठोर, न अत्यधिक नरम होना चाहिए।
2. टेलियोलॉजी (उद्देश्य-आधारित नैतिकता):
अरस्तू मानते थे कि प्रकृति की हर वस्तु का एक उद्देश्य (Telos) होता है।
मनुष्य का उद्देश्य है यूडेमोनिया (समृद्धि या सच्चा सुख) होता है।
नैतिक कार्य वे हैं जो व्यक्ति और समाज को कल्याण की ओर ले जाएँ — यही लोक सेवा का भी उद्देश्य है।
3. यूडेमोनिया (मानव समृद्धि):
असली खुशी सद्गुणों के साथ जीवन जीने से मिलती है, न कि केवल आनंद या धन से।
यह नौकरशाहों को याद दिलाता है कि जनहित और ईमानदारी से कार्य करने में अधिक संतोष है, ना की धन अर्जित करने से ।
4. सद्गुण नैतिकता (Virtue Ethics):
नैतिकता केवल नियमों का पालन करने या परिणाम को अच्छा करने के बजाय चरित्र निर्माण पर आधारित होती है।
UPSC नैतिकता में जिन मूल्यों पर ज़ोर दिया जाता है — ईमानदारी, करुणा, साहस — ये सभी गुण नैतिकता के केंद्र में हैं।
5. न्याय एक गुण के रूप में (Justice as a Virtue):
अरस्तू के अनुसार, न्याय "पूर्ण गुण" है — जिसमें प्रत्येक को उसका उचित हक देना शामिल है।
यह शासन और प्रशासन के मूल में है — नीतियों में निष्पक्षता और न्याय का वितरण।
निष्कर्ष:
अरस्तू की नैतिकता चरित्र निर्माण, संतुलन और जनकल्याण पर आधारित है — जो एक सिविल सेवक से अपेक्षित मूल्यों के साथ पूरी तरह मेल खाती है।
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