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मानव भूगोल के विकास में व्यहवारपरक उपागम के महत्व का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए।

 प्रश्न.

मानव भूगोल के विकास में व्यहवारपरक उपागम के महत्व का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। 

(UPSC भूगोल वैकल्पिक 2024)

उत्तर.

व्यवहारपरक उपागम का उद्भव 1970 के दशक में मात्रात्मक क्रांति (Quantitative Revolution) और प्रत्यक्षवाद (Positivism) की सीमाओं की आलोचना के रूप में हुआ। जहाँ मात्रात्मक उपागम वस्तुनिष्ठता, सांख्यिकीय मॉडल और आर्थिक तर्कशीलता पर आधारित था, वहीं व्यवहारपरक उपागम ने मानवीय निर्णयों की भावनात्मक, सांस्कृतिक और मूल्य आधारित प्रकृति पर बल दिया।


भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में, जहाँ सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक कारक मानव व्यवहार को गहराई से प्रभावित करते हैं, यह उपागम मानवीय स्थानिक व्यवहार को समझने में अत्यंत उपयोगी सिद्ध होता है।


व्यवहारपरक भूगोल की मूल अवधारणाएँ:

मानसिक नक्शा (Mental Map):

हर व्यक्ति का निर्णय उसकी व्यक्तिगत समझ, अनुभव, मूल्यों, संस्कृति और सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि पर आधारित होता है।

उदाहरण: एक ही भारतीय शहर में दो लोग कार्यालय जाने के लिए अलग-अलग मार्ग चुनते हैं — कोई ट्रैफिक से बचता है, तो कोई परिचित मार्ग को प्राथमिकता देता है।


मानव व्यवहार की व्यक्तिनिष्ठता (Subjectivity):

मात्रात्मक मॉडल में यह मान लिया जाता है कि मानव हमेशा लाभ के अधिकतमकरण के लिए कार्य करता है, जबकि व्यवहारपरक उपागम यह दर्शाता है कि लोग अक्सर "संतोषजनक" निर्णय (satisficer) लेते हैं — जो पर्याप्त हो, वही उन्हें स्वीकार्य होता है।


अंतरविषयक प्रकृति:

यह उपागम भूगोल को मनोविज्ञान, समाजशास्त्र और नैतिकता से जोड़ता है।

→ भूगोल = मनोविज्ञान + समाजशास्त्र + विज्ञान


मानव और पर्यावरण की अंतःक्रिया:

पर्यावरण की अनुभूति हर व्यक्ति के लिए समान नहीं होती, बल्कि उसके मूल्यों और आवश्यकताओं पर आधारित होती है।

उदाहरण: एक किसान के लिए वर्षा वरदान होती है, जबकि एक रेहड़ी वाले के लिए परेशानी।


मानव भूगोल में व्यवहारपरक उपागम का महत्व:

1. समाज की यथार्थवादी समझ:

यह समझाता है कि क्यों भारतीय किसान कभी-कभी अधिक उर्वरक का प्रयोग करते हैं — वे अल्पकालिक लाभ के लिए दीर्घकालिक नुकसान को नजरअंदाज कर देते हैं। यह आर्थिक तर्क से इतर मानवीय व्यवहार को दर्शाता है।


2. सांस्कृतिक और धार्मिक प्रभाव:

भारत में मंदिर दर्शन, व्रत, त्योहार और तीर्थ यात्राएँ सांस्कृतिक एवं धार्मिक मूल्यों से संचालित होती हैं, जिन्हें मात्रात्मक मॉडल द्वारा समझना संभव नहीं।


3. नगरीय और ग्रामीण नियोजन में उपयोगिता:

यह उपागम समझने में सहायक होता है कि झुग्गियों, ग्रामीण क्षेत्रों या भीड़भाड़ वाले शहरी क्षेत्रों में लोग स्थानों का कैसे उपयोग करते हैं। यह स्मार्ट सिटी योजना या मेट्रो मार्ग जैसे निर्णयों में सहायक है।


4. स्थान की अनुभूति और पहचान:

स्थान केवल भौगोलिक क्षेत्र नहीं, बल्कि भावनात्मक और पहचान से जुड़ा होता है।

उदाहरण: वन क्षेत्र – आदिवासियों के लिए आजीविका, उद्योगपतियों के लिए कच्चा माल, पर्यटकों के लिए पर्यटन स्थल।


 मानव भूगोल में व्यवहारपरक उपागम सीमाएँ / आलोचना:


1. सामान्यीकरण की कमी:

अत्यधिक व्यक्तिगत होने के कारण, इसके आधार पर सार्वभौमिक सिद्धांत या मॉडल बनाना कठिन है।


2. पूर्वानुमान की सीमित क्षमता:

व्यक्तिनिष्ठ व्यवहार नीति निर्धारण में भविष्यवाणी की सटीकता को घटा देता है।


3. बृहद स्तर पर सीमित उपयोग:

यह उपागम सूक्ष्म स्तर (व्यक्ति या समुदाय) के अध्ययन के लिए उपयुक्त है, लेकिन बड़े पैमाने पर विश्लेषण में कम कारगर।


निष्कर्ष:

व्यवहारपरक उपागम ने मानव भूगोल में मानवीय तत्वों — जैसे भावनाएँ, अनुभूति और मूल्य — को पुनः स्थापित किया। यद्यपि इसमें मात्रात्मक भूगोल जैसी मॉडल निर्माण की शक्ति नहीं है, फिर भी यह यथार्थवादी, मानवीय अनुभवों पर आधारित गहन अंतर्दृष्टि प्रदान करता है।

भारत जैसे देश में, जहाँ जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र और पारिवारिक संरचना जैसे कारक मानव व्यवहार को प्रभावित करते हैं, यह उपागम शोध और नीति निर्माण के लिए अत्यंत प्रासंगिक एवं उपयोगी है।

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