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अध्याय 7 : "भारत की सांस्कृतिक जड़ें" – सारांश | कक्षा 6, सामाजिक विज्ञान – NEW NCERT संक्षिप्त सारांश

प्रस्तावना:

भारतीय संस्कृति अत्यंत प्राचीन है, जिसकी जड़ें कई हजारों वर्षों पुरानी हैं। यह एक विशाल वृक्ष के समान है, जिसमें अनेक जड़ें और शाखाएँ हैं। जड़ें संस्कृति को पोषण देती हैं और शाखाएँ इसके विभिन्न पहलुओं—कला, साहित्य, विज्ञान, चिकित्सा, धर्म, शासन व्यवस्था, युद्ध-कला आदि होते हैं।


भारतीय संस्कृति के कुछ स्रोत सिंधु-सरस्वती (हड़प्पा) सभ्यता तक जाते हैं। समय के साथ, भारत में अनेक जीवन-दर्शन और विचारधाराएँ विकसित हुईं, जिन्होंने इसे विशिष्ट पहचान दी। इन दर्शनों और उनकी जड़ों को समझना भारत को गहराई से समझने के लिए आवश्यक है।


भारतीय परंपरा में सच्चे ज्ञान को सबसे बड़ी संपत्ति माना गया है—ऐसी संपत्ति जिसे न छीना जा सकता है, न घटाया जा सकता है, और जिसका उपयोग करने से यह बढ़ती ही है। 


आध्यात्मिकता सच्चे ज्ञान का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसमें साधक आत्मा और जीवन के गहरे सत्य की खोज करता है।

साधक ऐसा व्यक्ति होता है जो इस दुनिया के सत्य को जानना चाहता है। यह एक ॠषि , संत, योगी, कोई भी हो सकता है। 



वेद और वैदिक संस्कृति:

"वेद" शब्द "विद्" धातु से निकला है, जिसका अर्थ है "ज्ञान"। चार वेद हैं — ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ये न केवल भारत के बल्कि विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथों में गिने जाते हैं।

वेदों में हजारों ऋचाएँ (कविताएँ/गीत) हैं, जो प्रारंभ में लिखी नहीं गईं, बल्कि मौखिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्मृति में संजोकर सुरक्षित रखी गईं। इनकी रचना सप्तसिंधु क्षेत्र में हुई। विशेषज्ञ मानते हैं कि ऋग्वेद की रचना लगभग 5000–2000 ईसा पूर्व के बीच हुई होगी। 

2008 में यूनेस्को ने वैदिक मौखिक परंपरा को “मानवता की अमूर्त विरासत” के रूप में मान्यता दी।


ऋषियों और ऋषिकाओं ने इन ऋचाओं की रचना संस्कृत के प्रारंभिक रूप में की। इनमें इंद्र, अग्नि, वरुण, मित्र, सरस्वती, उषा आदि देवताओं और देवियों को काव्यात्मक रूप से संबोधित किया गया।

आद्य ऋषि-ऋषिकाओं ने देवताओं और देवियों को अलग न मानकर एक ही परम सत्य का रूप माना — “एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति” (सत्य एक है, विद्वान उसे कई नामों से पुकारते हैं)।

सत्य को ईश्वर का दूसरा नाम माना गया, और ऋग्वेद के अंतिम मंत्रों में मानवों के बीच एकता, समान विचार और साझा उद्देश्य का आह्वान किया गया।


वैदिक समाज:

प्रारंभिक वैदिक समाज विभिन्न "जन" (बड़े समूह) में संगठित था। ऋग्वेद में 30 से अधिक जनों के नाम मिलते हैं — जैसे भरत, पुरु, कुरु, यदु, तुर्वश आदि। हर जन का संबंध उत्तर-पश्चिमी उपमहाद्वीप के किसी विशेष क्षेत्र से था।


शासन व्यवस्था:

इन जनों का शासन कैसे चलता था, इसका अधिक विवरण नहीं मिलता, पर ऋग्वेद में राजा, सभा और समिति जैसे शब्द मिलते हैं। "सभा" और "समिति" दोनों सामूहिक निर्णय और जनभागीदारी के संकेत हैं।


व्यवसाय:

वैदिक ग्रंथों में विभिन्न पेशों का उल्लेख है — किसान, बुनकर, कुम्हार, शिल्पकार, बढ़ई, आरोग्यकर्ता (चिकित्सक), नर्तक-नर्तकी, नाई, पुजारी आदि।

"आरोग्यकर्ता" वे होते थे जो रोगों से राहत देने या ठीक करने के लिए पारंपरिक उपचार पद्धतियों का प्रयोग करते थे।


वैदिक दर्शन :


अनुष्ठान और यज्ञ:

वैदिक संस्कृति में अनेक प्रकार के अनुष्ठान (विशेषकर यज्ञ) विकसित हुए, जो देवताओं और देवियों के प्रति व्यक्तिगत या सामूहिक कल्याण के लिए किए जाते थे।

दैनिक अनुष्ठानों में प्रार्थनाएँ और अग्नि देव को आहुति शामिल होती थी, लेकिन समय के साथ ये अधिक जटिल होते गए।


उपनिषद और नए विचार:

उपनिषद वैदिक विचारों पर आधारित ग्रंथ हैं, जिनमें नए सिद्धांत प्रस्तुत हुए —

पुनर्जन्म: बार-बार जन्म लेना

कर्म: कार्य और उनके फल का सिद्धांत


वेदांत दर्शन:

वेदांत के अनुसार पूरा ब्रह्मांड, प्रकृति और मानव जीवन एक ही दैवी तत्व है जिसे ब्रह्म कहा जाता है (जो ब्रह्मा देव से अलग है)।

दो प्रसिद्ध सूत्र —

अहम् ब्रह्मास्मि — “मैं ब्रह्म हूँ” (मैं दिव्य हूँ)

तत् त्वम् असि — “वह ब्रह्म आप ही हैं”


आत्मन् और ब्रह्म का संबंध:

प्रत्येक जीव में आत्मन् (स्व) का वास होता है, जो वास्तव में ब्रह्म का ही रूप है। सब कुछ आपस में जुड़ा और परस्पर निर्भर है।

एक महत्वपूर्ण प्रार्थना — सर्वे भवन्तु सुखिनः — “सभी जीव सुखी रहें, रोग और दुख से मुक्त हों।”


अन्य दर्शनों का विकास:

पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व के आरंभ में वेदों से नए दर्शन विकसित हुए, जिनमें योग प्रमुख था। योग का उद्देश्य ब्रह्म का आत्मबोध पाने के लिए साधना और विभिन्न विधियों का अभ्यास करना था।

इन सबने मिलकर आगे चलकर हिंदू दर्शन की नींव बनाई।



उपनिषदों की कथाओं का सार:

प्रश्न पूछना ज्ञान की कुंजी है — चाहे वह महिला, पुरुष या बच्चा कोई भी पूछे।


1. श्वेतकेतु और यथार्थबोध का बीज (छांदोग्य उपनिषद)

ऋषि उद्दालक आरुणि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को 12 वर्षों तक गुरुकुल में वेदों का अध्ययन कराया।

लौटने पर उन्होंने देखा कि श्वेतकेतु ज्ञान के कारण अहंकारी हो गया है।

ब्रह्म के स्वरूप पर प्रश्न पूछने पर श्वेतकेतु उत्तर नहीं दे सका।

ऋषि उद्दालक आरुणि ने समझाया सब कुछ एक ही तत्व — ब्रह्म से उत्पन्न हुआ है।

“सभी में यही सूक्ष्म तत्व व्याप्त है… तुम वही हो, श्वेतकेतु।”


2. नचिकेता और ज्ञान की पिपासा (कठोपनिषद)

यज्ञ के समय एक व्यक्ति अपनी सभी संपत्ति दान कर रहा था।

उसका पुत्र नचिकेता बार-बार पूछने लगा — “मुझे किस देवता को दोगे?”

क्रोधित होकर पिता ने कहा — “तुम्हें यम (मृत्यु देवता) को देता हूँ।”

नचिकेता यमलोक पहुँचे और पूछा — “मृत्यु के बाद क्या होता है?”

यम ने पहले टाला, पर नचिकेता के आग्रह पर बताया — आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है; वह अमर है।

नचिकेता यह ज्ञान पाकर लौट आए।


3. गार्गी और याज्ञवल्क्य का शास्त्रार्थ (बृहदारण्यक उपनिषद)

 ब्रह्म ही संसार, ऋतुओं, नदियों और सभी वस्तुओं का मूल है।




बौद्ध मत :


बौद्ध मत वेदों की प्रभुता को अस्वीकार कर, अपनी अलग धार्मिक-दार्शनिक पद्धति विकसित करने वाला एक प्रमुख मत है। इसके संस्थापक सिद्धार्थ गौतम (बुद्ध) थे, जिनका जन्म लगभग 560 ईसा पूर्व लुंबिनी (वर्तमान नेपाल) में हुआ।


राजकुमार सिद्धार्थ का पालन-पोषण राजमहल में सुरक्षित वातावरण में हुआ। 29 वर्ष की आयु में उन्होंने पहली बार बुढ़ापा, बीमारी, और मृत्यु को देखा, साथ ही एक शांत और प्रसन्न संन्यासी को भी। इससे प्रभावित होकर उन्होंने अपना परिवार और राजसी जीवन त्यागकर मानव दुखों के कारण खोजने का संकल्प लिया।


बोधगया (बिहार) में पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान के बाद उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होंने जाना कि अविद्या (अज्ञान) और मोह (आसक्ति) दुखों के मूल कारण हैं, और इन्हें दूर करने के लिए उन्होंने एक मार्ग बताया।


बुद्ध के उपदेशों में –

अहिंसा (किसी को चोट या नुकसान न पहुँचाना)

आंतरिक अनुशासन और आत्मसंयम

सत्य की खोज और सरल जीवन

बुद्ध ने संघ की स्थापना की — भिक्षुओं और भिक्षुणियों का समुदाय, जो उनके उपदेशों का पालन और प्रसार करता था। बौद्ध मत का प्रभाव भारत ही नहीं, बल्कि पूरे एशिया में आज भी देखा जा सकता है।



जैन मत :

जैन मत एक प्राचीन दर्शन है, जो सिद्धार्थ गौतम के समय में भी लोकप्रिय था। इसके 24वें तीर्थंकर वर्धमान का जन्म छठी शताब्दी ईसा पूर्व की शुरुआत में वैशाली (वर्तमान बिहार) के पास हुआ। 30 वर्ष की आयु में उन्होंने गृहत्याग कर संन्यासी जीवन अपनाया, और 12 वर्षों के कठिन साधना के बाद उन्हें अनंत ज्ञान प्राप्त हुआ। इसके बाद वे महावीर के नाम से प्रसिद्ध हुए और अपने उपदेश देने लगे।

‘जैन’ शब्द ‘जिन’ से निकला है, जिसका अर्थ है – अविद्या और मोह पर विजय पाने वाला।


जैन मत के मुख्य सिद्धांत:

अहिंसा – किसी भी जीव को मारना, चोट पहुँचाना, सताना या दुर्व्यवहार न करना।

अनेकांतवाद – सत्य के अनेक पक्ष होते हैं; इसे केवल एक दृष्टिकोण से पूरी तरह नहीं समझा जा सकता।

अपरिग्रह – भौतिक वस्तुओं से दूरी, और केवल आवश्यक वस्तुओं तक सीमित रहना।

जैन मत सभी जीवों — चाहे वे मनुष्य हों, जानवर हों या सूक्ष्म जीव — की आपसी जुड़ाव और परस्पर निर्भरता पर बल देता है। यह विचार आधुनिक विज्ञान के पारिस्थितिकी संबंधी सत्य से भी मेल खाता है।



1. जातक कथा

जातक कथाएँ बुद्ध के पूर्व जन्मों की कहानियाँ हैं, जो सरल ढंग से बौद्ध आदर्शों को व्यक्त करती हैं।

एक प्रसिद्ध कथा में वानर-राज अपने समूह को एक विशाल वृक्ष पर बसेरा दिलाए हुए थे। आदेश था कि फल किसी और को न मिले, लेकिन एक फल नदी में गिरकर राजा के पास पहुँचा। राजा ने फल के स्वाद से प्रभावित होकर वृक्ष खोजने का आदेश दिया।

जब सैनिकों ने वानरों पर हमला किया, तो वानर-राज ने अपने शरीर को पुल बनाकर साथियों को नदी पार कराया। इस बलिदान से उनकी मृत्यु हो गई। राजा उनकी निःस्वार्थता से प्रभावित हुआ और अपनी प्रजा के साथ व्यवहार पर पुनर्विचार करने लगा।


2. जैन कथा

रोहिनेय एक कुशल चोर था। एक दिन उसने महावीर के उपदेश के कुछ शब्द सुने। बाद में पकड़ा गया, लेकिन महावीर के शब्द याद रखते हुए मंत्री की चाल समझकर बच निकला।

उसे अपने अपराधों पर पछतावा हुआ, उसने चोरी का सामान लौटाया, क्षमा माँगी और भिक्षु बन गया।

यह कथा सही कर्म और सही विचार के महत्व को बताती है, और यह संदेश देती है कि जीवन में हर व्यक्ति को सुधार का दूसरा अवसर मिलना चाहिए।

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