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[सारांश ] | अध्याय 11 : आधारभूत लोकतंत्र — भाग 2 | ग्रामीण क्षेत्रों में स्‍थानीय सरकार | कक्षा 6 सामाजिक विज्ञान

ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय सरकार की जरूरत क्यों है?

भारत एक विशाल और विविधताओं से भरा देश है, 

  • जहाँ लगभग 6 लाख गाँव, 8,000 कस्बे और 4,000 से अधिक नगर हैं। 
  • हमारी जनसंख्‍या लगभग 1.4 अरब से ज्यादा है।
  • जनसंख्या का बड़ा हिस्सा (लगभग दो-तिहाई) ग्रामीण क्षेत्रों में रहता है। 

ऐसे विविध समाज में स्थानीय स्तर पर रोजमर्रा की अपनी अलग समस्या है।


गाँव की मुख्य आवश्यकताएँ हैं—सिंचाई के लिए पानी, वर्षा से खराब हुई सड़क का रख-रखाव और प्राथमिक विद्यालय की देखभाल।

गांव के मुख्य समस्या में भूमि वि‍वाद अथवा किसी की कृषि उपज चोरी है। 

ऐसी प्रत्‍येक समस्याओ के लिए गाँव के लोग राज्य या राष्‍ट्र की राजधानी तो नहीं जा सकते है, इसके लिए स्थानीय स्तर की सरकार की आवश्यकता होती है, जो ग्रामीण जनता की समस्याओं को समझकर उनके लिए त्वरित और उपयुक्त निर्णय ले सके।


भारत के स्थानीय शासन व्यवस्था को पंचायती राज व्यवस्था कहते है। 


पंचायती राज व्यवस्था :

भारत के प्रत्येक गाँव में स्थानीय शासन व्यवस्था को पंचायत कहा जाता है। यह शासन को ग्रामीणों के करीब लाती है और उन्हें निर्णय लेने की प्रक्रिया में भागीदारी का अवसर देती है। इसी कारण इसे स्वशासन का रूप माना जाता है। पंचायत स्थानीय समस्याओं को हल करने, विकास कार्य आगे बढ़ाने और सरकारी योजनाओं का लाभ जनसाधारण तक पहुँचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।


पंचायती राज व्यवस्था तीन स्तरों पर कार्य करती है—

1. ग्राम स्तर (ग्राम पंचायत)

2. खंड स्तर (खंड पंचायत /पंचायत समिति या मंडल परिषद)

3. जिला स्तर (जिला पंचायत / जिला परिषद)


ग्राम पंचायत:

ग्राम पंचायत ग्रामीणों के सबसे निकट होती है।

इसके सदस्य ग्राम सभा द्वारा चुने जाते हैं। ग्राम सभा में सभी वयस्क मतदाता (महिला और पुरुष) शामिल होते हैं।

ग्राम पंचायत का प्रमुख सरपंच (प्रधान) कहलाता है।

पंचायत सचिव और पटवारी (भू-अभिलेख अधिकारी) ग्राम पंचायत की सहायता करते हैं।


आदर्श सरपंचों के उदाहरण

दयानेश्वर कांबले (महाराष्ट्र, 2017): उनका आदर्श वाक्य था—“लोक सेवा, ग्राम सेवा।”

वंदना बहादुर मैदा (मध्य प्रदेश): पहली महिला सरपंच बनीं और शिक्षा व स्वच्छता जैसी समस्याओं पर ध्यान दिलाया।

पोपटराव पवार (महाराष्ट्र, हिवरे बाजार): जल-संरक्षण और वृक्षारोपण से गाँव को समृद्ध बनाया। उन्हें 2020 में पद्मश्री मिला।


पंचायत समिति (खंड स्तर):

यह ग्राम पंचायत और जिला परिषद के बीच की कड़ी है।

सदस्यों का चुनाव स्थानीय जनता करती है, पर इसमें गाँवों के सरपंच और राज्य विधान सभा के सदस्य भी शामिल हो सकते हैं।

गठन राज्य के अनुसार अलग हो सकता है, पर उद्देश्य स्थानीय भागीदारी को मजबूत करना है।

ग्राम पंचायतों की योजनाओं को संकलित करके जिला और राज्य स्तर पर प्रस्तुत करती है।

विकास कार्यों और सरकारी योजनाओं (जैसे प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना) के लिए धनराशि के आवंटन में मदद करती है।


जिला परिषद (जिला स्तर):

जिला स्तर पर पंचायत व्यवस्था की सर्वोच्च संस्था है।

इसका कार्य क्षेत्रीय स्तर पर योजनाओं का समन्वय करना और विकास कार्यों की देखरेख करना है।



अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और वंचित वर्गों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विशेष नियम बनाए गए हैं।

एक-तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं।

राज्यों में संरचना और कार्यप्रणाली में भिन्नता हो सकती है, लेकिन उद्देश्य समान है — ग्रामीण जनता को अपने क्षेत्रों के प्रबंधन और विकास में भागीदारी देना।


शासन पर ‘अर्थशास्त्र’:

लगभग 2300 वर्ष पूर्व कौटिल्य (चाणक्य) द्वारा रचित अर्थशास्त्र एक प्राचीन ग्रंथ है। इसमें राज्य की संरचना, संचालन, समृद्ध अर्थव्यवस्था, शासक के कर्तव्य और युद्ध की नीतियों का विस्तृत वर्णन मिलता है।

शासन की व्यवस्था कैसे बनाई जाए, इस पर स्पष्ट मार्गदर्शन दिया गया है।

राजा की जिम्मेदारियों और आदर्श प्रशासन की रूपरेखा प्रस्तुत की गई है।

शासन को प्रभावी बनाने के लिए गाँव से लेकर प्रांतीय राजधानी तक प्रशासनिक इकाइयाँ निर्धारित की गईं।


प्रत्येक स्तर पर प्रशासनिक केंद्र:

10 गाँव → संग्रहण (उप-जिला मुख्यालय)

100 गाँव → करवाटिका (जिला मुख्यालय)

400 गाँव → द्रोणमुख

800 गाँव → स्थानीय (प्रांतीय मुख्यालय)

यह व्यवस्था दर्शाती है कि प्राचीन भारत में प्रशासन को संगठित और व्यवस्थित बनाने की दूरदर्शिता थी।

यह स्थानीय से लेकर प्रांतीय स्तर तक शासन को पहुँचाने की एक संगठित प्रणाली थी।


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